Wednesday, June 17, 2009

18-06-2009 (2:00 am)

मैं अदना
ख़ुद-से बोझिल
सौंदर्य की समझ में उलझा
और युग से पिछड़ता हुआ
मौन हूँ।
मौन हूँ और हूँ वहीं
झरनों को ताकता
तलहट को निहारता हुआ,
रौशनी में अंधेरे टटोलता
आँखों से सीमाएं खींचता हुआ
मैं अदना।
शाम के साथ
रोचक होती जाती रूमानियत
और सिकुड़ती धरती
के बीच
अपनी पहचान समेटता
मैं अदना।
छद्म-प्रेम से पंगु होती
सभी विद्याओं की नाप-जोप
और स्मृतियों के घाल-मेल में
भली हैसियत तलाशता,
मैं अदना।

2 comments:

PL said...

honestly speaking, i don't think i understood the piece in its entirety .. but jitna bhi samjhe, awesome hai yaar .. likhte raho .. too good!!

Amit Kumar said...

thank you thank you :)