एक प्यारे सपने की भूमिका
ऐ खुदगर्ज़ रात
तेरे सपनों के ढेर से
एक मुठ्ठी मुझे भी दे सपना ।
क्यों कुछ भी नहीं मेरी नींद के हवाले?
क्यों कम पड़ गया है
चाँद का शृंगार मेरे आँगन में?
मुझे मालूम है कि यौवन का मोम बस
अपनी रौशनी में झुलसता आया है
मगर आज बात कुछ और है।
होंठो पे ठहरी कितनी ही कविताएँ
मौसम से आज़ाद होकर
खुशनुमा सांसों के पैगाम भेज रही हैं।
शायद सबकी ज़िन्दगी -
सबकी मज़लूम ज़िन्दगी
यहीं आकर ठहर जाती है।
सचमुच क्या फ़ायदा
बचपन की उमंगों का हवाला देकर,
जब मेरी उदासी मुझमें ही
एक घुटन भरा स्थायित्व तलाश रही है।
और क्या फ़ायदा
रात के होने का भी।
दिन के खिलाफ़ तो
अँधेरा भी था।
Thursday, November 29, 2007
Subscribe to:
Posts (Atom)